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प꣡व꣢स्व सोम म꣣हे꣢꣫ दक्षा꣣या꣢श्वो꣣ न꣢ नि꣣क्तो꣢ वा꣣जी꣡ धना꣢य ॥४३०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पवस्व सोम महे दक्षायाश्वो न निक्तो वाजी धनाय ॥४३०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡व꣢꣯स्व । सो꣣म । महे꣢ । द꣡क्षा꣢꣯य । अ꣡श्वः꣢꣯ । न । नि꣣क्तः꣢ । वा꣣जी꣢ । ध꣡ना꣢꣯य ॥४३०॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 430 | (कौथोम) 5 » 1 » 5 » 4 | (रानायाणीय) 4 » 9 » 4


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः परमेश्वर और राजा से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) रसागार परमेश्वर और राजन् ! (अश्वः न) अग्नि, बादल वा सूर्य के समान (निक्तः) शुद्ध, शुद्ध गुण-कर्म-स्वभाववाले और (वाजी) बलवान् आप (महे) महान् (दक्षाय) बल के लिए तथा (धनाय) धन के लिए (पवस्व) हमें पवित्र कीजिए ॥४॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार तथा अर्थश्लेषालङ्कार है ॥४॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर के समान राजा भी स्वयं शुद्ध आचरणवाला होकर सबके आचरण को पवित्र करे। वही बल और धन सबका उपकारक होता है, जो पवित्रता के साथ तथा पवित्र साधनों से कमाया जाता है ॥४॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनः परमेश्वरं राजानं च प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) रसागार परमेश्वर राजन् वा ! (अश्वः२ न) अग्निरिव, पर्जन्य इव, सूर्य इव वा (निक्तः) शुद्धः, शुद्धगुणकर्मस्वभावः। णिजिर् शौचपोषणयोः, भावे क्तः। (वाजी) बलवांश्च त्वम् (महे) महते (दक्षाय) बलाय, (धनाय) ऐश्वर्याय च (पवस्व) अस्मान् पुनीहि ॥४॥ अत्रोपमालङ्कारोऽर्थश्लेषश्च ॥४॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर इव नृपतिरपि स्वयं शुद्धाचारः सन् सर्वेषामाचरणं पवित्रं कुर्यात्। तदेव बलं धनञ्च सर्वोपकारकं जायते यत् पवित्रतापूर्वकं पवित्रसाधनैश्च समर्जितं भवति ॥४॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०९।१०, ‘महे’ इत्यत्र ‘क्रत्वे’ इति पाठः। साम० १३३२। २. वेदेऽग्निः पर्जन्यः सूर्यश्च अश्वनाम्ना व्यपदिष्टाः। यथा, ऋ० १०।१८८।१, ५।८३।६, ७।७७।३।